1920 में मुसलमानों ने खुद को नहीं माना था अल्पसंख्यक; AMU केस में SC में वकील की दलील…

सुप्रीम कोर्ट के 7 जज की संविधान पीठ को केंद्र सरकार ने बताया कि राष्ट्रीय महत्व के एक संस्थान में ‘राष्ट्रीय संरचना’ झलकनी चाहिए।

सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि बिना आरक्षण के भी ‌एएमयू में पढ़ने वाले लगभग 70 से 80 फीसदी छात्र मुस्लिम हैं। मेहता ने कहा कि मामले में फैसला करने में सामाजिक न्याय एक बहुत ही निर्णायक कारक होगा।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ के समक्ष सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि आपको इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पक्षकारों के बीच यह लगभग स्वीकृत स्थिति है कि आरक्षण के बिना भी, एएमयू में 70 से 80 फीसदी छात्र मुस्लिम हैं।

सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि ‘मैं धर्म पर नहीं हूं, यह एक बहुत ही गंभीर घटना है। मेहता ने पीठ के समक्ष अपनी लिखित दलीलें भी पेश की है।

इसमें कहा है कि एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान को केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 (2012 में संशोधित) की धारा 3 के तहत आरक्षण नीति लागू करने की आवश्यकता नहीं है।

संविधान पीठ ने कहा कि 1981 के कानून में संशोधन को पेश करने का तत्कालीन सरकार का उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों को पहचानना था। पीठ ने आगे कहा कि तब के केंद्रीय मंत्री यह कहते हैं कि यह पहचानना था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की स्थापना भारत के मुसलमानों ने की थी।

संविधान पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने के लिए एएमयू अधिनियम 1920 में संशोधन विधेयक पर 1981 में संसद में हुई बहस का हवाला दिया।

चुनाव घोषणाापत्र का हिस्सा था
सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कहा कि संसद में तत्कालीन समाजिक कल्याण मंत्री ने कहा कि ‘यह हमारे चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा था और मैं इसे उस पर छोड़ता हूं…यदि संसद को सौ साल के इतिहास को मान्यता देने की अनुमति दी जाए तो अदालत खतरे को पहचान सकती है। इस पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘यह संसद का विशेषाधिकार क्षेत्र है, हम इसे नियंत्रित नहीं कर सकते।’ संविधान पीठ एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे बहाल रखने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई के छठेवीं सुनवाई कर रही थी। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अलावा, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जे.बी. पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं।

अल्पसंख्यक होना राजनीतिक अवधारणा है
प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने पीठ को बताया कि मुस्लिम होना एक बात है और अल्पसंख्यक होना दूसरी बात। उन्होंने कहा कि ‘हमारे सामने वास्तव में जो प्रश्न है, वह यह है कि क्या वे अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और प्रशासित है।

उन्होंने कहा कि तथ्य यह है कि वे (मुस्लिम) आज यूपी में अल्पसंख्यक हैं कि वे उस प्रासंगिक समय में अल्पसंख्यक थे, क्योंकि क्या वे अल्पसंख्यक थे अल्पसंख्यक हैं या नहीं, इसका फैसला आज के मानकों के आधार पर किया जाना चाहिए।

वरिष्ठ अधिवक्ता द्विवेदी ने कहा कि अल्पसंख्यक एक ‘राजनीतिक अवधारणा‌’ है। उन्होंने कहा कि  उस समय मुसलमानों ने खुद को कभी अल्पसंख्यक नहीं बल्कि एक ‘राष्ट्र’ माना।

उन्होंने कहा कि इतिहास से पता चलता है कि जब 1920 में एएमयू अधिनियम पारित किया गया था तब मुसलमानों ने न तो खुद को अल्पसंख्यक माना था और न ही ब्रिटिश भारत सरकार ने उन्हें संप्रदाय के आधार पर वर्गीकृत किया था।

100 से अधिक वर्षों के बाद एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में इसकी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाएगी, खासकर तब जब एएमयू ने 40 वर्षों से अधिक समय तक सुप्रीम कोर्ट के 1967 के अज़ीज़ बाशा फैसले को चुनौती नहीं देने का फैसला किया, जिसने इसे गैर-अल्पसंख्यक संस्था घोषित कर दिया था। 

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